द्वितीय महायुद्ध के बाद की अंतरराष्ट्रीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण विकास शीत युद्ध है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में दो महाशक्तियों का उदय हुआ और इन महाशक्तियों सोवियत संघ व संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों ने एक दूसरे को प्रभावित करने के लिए छद्द्म युद्ध की स्थिति उत्पन्न की। वह शीत युद्ध के नाम से जानी गई।
शीत युद्ध शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका के बर्नार्ड बारुच ने 16 अप्रैल 1947 को किया उन्होंने एक भाषण मैं कहा था कि "हमें धोखे में नहीं रहना चाहिए हम शीत युद्ध के मध्य रह रहे हैं।" इसके बाद इस शब्द का प्रयोग महाशक्तियों के तनावपूर्ण संबंधों का प्रतीक बन गया।
जॉन फोस्टर डलेस के अनुसार, "शीत युद्ध नैतिक दृष्टि से धर्म युद्ध था अच्छाइयों के लिए बुराइयों के विरुद्ध सत्य के लिए गलतियों के विरुद्ध और धर्म प्राण लोगों के लिए नास्तिकों के विरुद्ध संघर्ष था।"
ग्रीव्ज़ के अनुसार, "परमाणु युग में शीत युद्ध ऐसी तनावपूर्ण स्थिति है जो शस्त्र युद्ध से कुछ परे हटकर है।"
शीत युद्ध शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका के बर्नार्ड बारुच ने 16 अप्रैल 1947 को किया उन्होंने एक भाषण मैं कहा था कि "हमें धोखे में नहीं रहना चाहिए हम शीत युद्ध के मध्य रह रहे हैं।" इसके बाद इस शब्द का प्रयोग महाशक्तियों के तनावपूर्ण संबंधों का प्रतीक बन गया।
शीत युद्ध वास्तविक युद्ध न होकर एक वाक युद्ध है। इसमें कूटनीतिक शक्ति के माध्यम से युद्ध का सा वातावरण प्रचार के माध्यम से बना दिया जाता है। यह सैद्धांतिक वह वैचारिक संघर्ष है।
जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, "शीत युद्ध पुरातन शक्ति संतुलन की अवधारणा का नया रूप है। यह दो विचारधाराओं का संघर्ष न होकर दो भीमाकार दैत्यों का आपसी संघर्ष है।"जॉन फोस्टर डलेस के अनुसार, "शीत युद्ध नैतिक दृष्टि से धर्म युद्ध था अच्छाइयों के लिए बुराइयों के विरुद्ध सत्य के लिए गलतियों के विरुद्ध और धर्म प्राण लोगों के लिए नास्तिकों के विरुद्ध संघर्ष था।"
ग्रीव्ज़ के अनुसार, "परमाणु युग में शीत युद्ध ऐसी तनावपूर्ण स्थिति है जो शस्त्र युद्ध से कुछ परे हटकर है।"
शीत युद्ध के कारण (cold war causes)
दोनों गुटों रूस और अमेरिका के मध्य शीत युद्ध छिड़ने के निम्न कारण थे-- दोनों पक्षों में संदेह व अविश्वास की भावना- रूस की साम्यवादी क्रांति की सफलता के पश्चात पश्चिमी राष्ट्र रूस को अविश्वास व संदेह की दृष्टि से देखने लगे थे। रूस भी शांत नहीं बैठा था उसने भी साम्यवादके प्रसार के लिए प्रयास आरंभ कर दिए थे। उसका प्रभाव क्षेत्र द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात पर्याप्त बढ़ गया था। अतः पश्चिम के देश रूस को संदेह तथा अविश्वास की दृष्टि से देखने लगे थे। रूस की पूंजीवादी विरोधी नीतियां पश्चिमी देशों के लिए एक चुनौती बन गई थी। अतः उन्होंने रूस की घेरा बंदी करनी प्रारंभ कर दी।
- सिद्धांतिक मतभेद- रूस और अमेरिका के विचार व सिद्धांत एक-दूसरे से पूर्णतया विरोधी थे। अमेरिका एक पूंजीवादी लोकतंत्रात्मक देश है जबकि रूस साम्यवादी तथा एक दलिय वाला देश है। इस प्रकार के सैद्धांतिक मतभेद ने दोनों के बीच एक तनाव उत्पन्न कर दिया जो आज भी उसकी विदेश नीति को प्रभावित कर रहा है।
- रूसी क्रांति के समय पश्चिमी देशों का हस्तक्षेप ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञात होगा कि जब 1917 में रूस में सशस्त्र साम्यवादी क्रांति प्रारंभ हुई थी उस समय ही पश्चिम के देशों ने तथा अमेरिका ने इस क्रांति को कुचलने की हर प्रकार से कोशिश की थी। परंतु पश्चिम की पूंजीवादी शक्तियों को रूसी क्रांति को कुचलने में सफलता नहीं मिली परन्तु रूसी जनता पश्चिम के इन पूंजीवादी देशों से घृणा अवश्य करने लगी।
- रूस की सरकार को प्रारंभ में मान्यता नहीं देना 1917 की क्रांति के पश्चात पर्याप्त काल तक पश्चिमी शक्तियों ने रूस की बोल्शेविक सरकार को मान्यता नहीं दी थी। अमेरिका ने तो 1935 में रूस को मान्यता प्रदान की तथा 1934 में उसे राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त हो सकी।
- ब्रिटेन तथा फ्रांस की तुष्टिकरण की नीति ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी के प्रति जो तुष्टिकरण की नीति अपनाई थी। उसने उसका विरोध किया था। पश्चिमी देशों का यह भ्रम था कि जर्मनी को संतुष्ट कर के उसे रूस के विरोध किया जा सकता है।
- रूस द्वारा याल्टा समझौतों की अवहेलना करना फरवरी 1945 में याल्टा सम्मेलन हुआ जिसमें अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट, चर्चिल तथा स्टालिन ने परस्पर कुछ समझौते किए थे जैसे पोलैंड में स्वतंत्र निर्वाचन द्वारा अस्थाई सरकार की स्थापना। बाह्य मंगोलिया में यथास्थिति बनाए रखना आदि। रूस ने याल्टा समझौते के पालन का आश्वासन तो दिया परंतु उसका पालन नहीं किया। रूस ने पोलैंड में साम्यवादी दल को हर प्रकार की सहायता दी और लोकतंत्रीय दलों को समाप्त करने का प्रयास किया। रूस की इन कार्यवाहियों से पश्चिम के देश उस पर संदेह करने लगे।
- तुर्की और यूनान पर रूस का प्रभाव रूस ने टर्की और यूनान पर अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने का प्रयास किया तथा वहां के साम्यवादी दलों को सहायता दी। अमेरिका ने साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए 1947 में ट्रूमैन सिद्धांत के अंतर्गत दोनों देशों को आर्थिक सहायता दी।
- शांति समझोतों के प्रशन पर मतभेद द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात रूस तथा पश्चिमी शक्तियों के मध्य शांति संधियों के संबंध में गंभीर मतभेद उत्पन्न हो गए। इटली के साथ होने वाली संधि के विषय में रूस का पश्चिमी शक्तियों से अनेक समस्याओं पर मतभेद था। रूस इटली के भूतपूर्व उपनिवेश लीबिया पर अपना संरक्षण चाहता था परंतु पश्चिम देश इस पर तैयार नहीं थे
- पश्चिमी देशों की फासिस्ट देशों से सांठ-गांठ रूस का अमेरिका पर यह आरोप था कि उसने इटली तथा फ्रांस के फासिस्ट तत्वों से संपर्क स्थापित किया है। परंतु पश्चिमी देश इस पर तैयार नहीं थे। रूस ने पश्चिमी देशों से बुलगारिया वह रोमानिया की सरकारों को मान्यता देने के लिए कहा परंतु पश्चिमी देशों ने इस मांग को ठुकरा दिया।
- अमेरिका द्वारा अणु बम के रहस्य को गुप्त रखना द्वितीय विश्वयुद्ध के समय रूस ने अमेरिका व पश्चिमी देशों का साथ हृदय से दिया था। परंतु अमेरिका ने अणु बम के आविष्कार को रूस से गुप्त रखा। जबकि ब्रिटेन और कनाडा को इस रहस्य की जानकारी थी। यह युद्धकालीन मित्रता के नियमों के विरुद्ध थी। अमेरिका ने जापान पर अणु बम गिरा कर यह सिद्ध करना चाहा कि उन्हें रुसियों की सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है। अतः रूस को अपनी सुरक्षा की चिंता होने लगी उसने भी 4 वर्ष के अंदर अणु बम बनाकर पश्चिम की शक्तियों को आश्चर्य में डाल दिया।
शीत युद्ध की समाप्ति के कारण Causes of Ending of Cold War
शीत युद्ध का अवसान 1990 में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में परिवर्तन के कारण हुआ। 1990 के दशक में उत्पन्न अनेक कारण शीत युद्ध के अंत के कारण रहे जो निम्न प्रकार है-- गोर्बाच्योव की नीतियां गोर्बाच्योव की ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका की नीति के कारण विश्व वातावरण परिवर्तित हुआ। यूरोप में साम्यवाद के खेमे में स्वतंत्रता और लोकतंत्र की हवा बहने लगी गोर्बाच्योव ने पूर्वी यूरोप के देशों में स्वतंत्रता और लोकतंत्र का समर्थन किया। जिसका प्रभाव सोवियत संघ के विघटन के रूप में रहा। सोवियत संघ के विघटन और वारसा पैक्ट की समाप्ति के साथ ही शीत युद्ध का अंत हो गया।
- सोवियत संघ का आर्थिक संकट 1980 के दशक में सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था संकट में आ गई। शस्त्र निर्माण व अंतरिक्ष अनुसंधान की प्रतिस्पर्धा ने अर्थव्यवस्था की स्थिति दयनीय बना दी। परिणाम स्वरुप ऐसी स्थिति में सोवियत संघ इस प्रकार का वातावरण अधिक लंबे समय तक नहीं रख सका। इस आर्थिक व्यवस्था में सोवियत संघ को शीत युद्ध को समाप्त करने के लिए मजबूर किया।
- शिखर वार्ताएं सोवियत संघ और अमेरिका के नेताओं की विभिन्न शिखर वार्ताओं तथा अनेक निशस्त्रीकरण समझोतों व घोषणाओं ने शीत युद्ध को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- सोवियत संघ का विघटन खाड़ी संकट में सोवियत संघ के निष्क्रिय समर्थन से उसकी महाशक्ति की प्रतिष्ठा समाप्त हो गई। इसी समय सोवियत संघ के अनेक गणराज्य ने अपनी स्वायत्तता की मांगे रखनी प्रारंभ कर दी और दिसंबर 1991 तक समूचा सोवियत संघ बिखर कर अलग अलग हो गया।
- साम्यवादी देशों में लोकतंत्र और उदारवादी व्यवस्था का प्रारंभ गोर्बाच्योव नीतियों से प्रेरणा पाकर 1989- 90 के वर्षों में पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों नें स्वतंत्र निर्वाचन बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था तथा स्वतंत्र बाजार व्यवस्था को अपना लिया । 1990 में सोवियत संघ ने भी स्वतंत्र बाजार व्यवस्था को अपना लिया। अतः शीत युद्ध के मूलतत्व वैचारिक भिन्नता की समाप्ति हो गई।
- अन्य कारण शीत युद्ध की समाप्ति में कई अन्य कारण भी रहे जैसे जर्मनी का एकीकरण, वारसा पैक्ट की समाप्ति, स्टार्ट संधि तथा अफगान समझौता आदि ने भी शीत युद्ध के विरोध वातावरण तैयार किया। परिणाम स्वरुप शीत युद्ध का अवसान हो गया।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर शीत युद्ध के प्रभाव Effect Of Cold War
शीत युद्ध ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर निम्नलिखित प्रभाव डालें-
- शीत युद्ध ने विश्व को दो गुटों में विभाजित कर दिया। प्रथम अमेरिकी गुट तथा द्वितीय रूसी गुट इस गुटबंदी ने अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने के बजाए उलझाने का काम ही प्रयास किया।
- शीत युद्ध ने विश्व में सैनिक गुटबंदी को भी प्रोत्साहन दिया। नाटो सीटो सेंटर तथा वारसा प्रैक्टिस के उदाहरण है।
- शीतयुद्ध ने राष्ट्रों में शस्त्रीकरण की प्रवृति को जन्म दिया अपार धनराशि शस्त्र निर्माण में व्यय होने लगी।
- सैनिक गुटबंदी ने निशस्त्रीकरण की समस्या को जटिल कर दिया।
- शीत युद्ध ने विश्व में आतंक तथा राष्ट्रों में परस्पर अविश्वास की भावना का विकास किया है।
- शीत युद्ध के कारण ही तीसरी दुनिया के विकासशील देशों की भूखमरी, बीमारी, बेरोजगारी, अशिक्षा आर्थिक पिछड़ापन, राजनीतिक अस्थिरता आदि अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं का उचित निदान यथासंभव संभव नहीं हो सका। क्योंकि महाशक्तियों का दृष्टिकोण मुख्यतः शक्ति की राजनीति तक ही सीमित रहा।
शीत युद्ध की वर्तमान स्थिति Cold War Current Status
26 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ की सुप्रीम सोवियत ने अपने अंतिम अधिवेशन में सोवियत संघ की समाप्ति तथा स्वयम को भंग करने की घोषणा की। इसी घोषणा के साथ दो प्रतिस्पर्धी गुटों में से एक समाप्त हो गया तो शीत युद्ध का समाप्त होना स्वभाविक था। शीत युद्धोत्तर विश्व में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में व्यापक परिवर्तन आने की संभावनाएं बनती हैं जो इस प्रकार हैं-- शीत युद्ध के दौरान अनेक सैनिक गठबंधनों का निर्माण किया गया था लेकिन अब लगभग सभी गठबंधन समाप्तप्राय: हो चुके हैं।
- शीत युद्ध की समाप्ति के साथ शस्त्रों पर भी वह कम होगा और विश्व शांति तथा सहयोग का विस्तार होगा ऐसी अपेक्षा की जाती है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका तथा रूस दोनों में नए सिरे से संबंध स्थापित होने की आशा है तथा दोनों के मध्य चले आ रहे विवादों का समाधान संभव हो सकेगा।
- अब विश्व द्विधुर्वीय की जगह बहुत ध्रुवीय हो गया है तथा भविष्य में इनके मध्य नई तरह के समीकरण उत्पन्न हो सकते हैं।
- शीत युद्ध के अंत के साथ ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन में परिवर्तन आया है। वह अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश कर रहा है।
- शीत युद्ध की समाप्ति के साथ ही भारत की विदेश नीति में भी परिवर्तन ही स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। अब आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में नए सिरे से संबंध स्थापित करने होंगे।
- शीत युद्ध की समाप्ति के साथ ही अमेरिका के लिए चीन तथा पाकिस्तान का पहले जितना महत्व नहीं रह गया है। अब भारत के संबंध अमेरिका से मित्रवत बने रहेंगे।
- अब यह भी आशा की जाती है कि संघर्ष व्यापक स्तर पर नहीं होंगे। उनका स्वरूप स्थानीय तथा पर प्रजातिगत होगा।
याल्टा समझौता क्या था
जवाब देंहटाएंVery nice thankuu so much for this
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