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न्यायपालिका Judiciary

न्यायपालिका Judiciary

हम जानते हैं कि सरकार के तीन अंग होते हैं-
  1. व्यवस्थापिका 
  2. कार्यपालिका 
  3. न्यायपालिका 
न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। न्यायपालिका निष्पक्ष एवं स्वतंत्र न्याय कर सके इसके लिए न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखा गया है। हम जानते हैं कि हमारे देश में संघात्मक शासन व्यवस्था है। केंद्र और राज्य सरकारें संविधान द्वारा निर्धारित अपने -अपने क्षेत्र में काम करती हैं। इनमें किसी भी विषय पर आपस में मतभेद हो सकता है। संविधान के अनुसार उन मतभेदों को दूर करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है। यह नई दिल्ली में स्थित है। यह अन्य कार्यों के अलावा कानून तथा संविधान की व्याख्या करता है। 

सर्वोच्च न्यायालय 

सर्वोच्च न्यायालय हमारी न्यायपालिका का सबसे बड़ा न्यायालय है। हमारे संविधान का रक्षक है, उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। यह नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है। यह देश के समस्त न्यायालयों से ऊपर है इसलिए यह अंतिम अपीलीय न्यायालय है। 

न्यायाधीशों की नियुक्ति 

सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीश होते हैं। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश से परामर्श कर अन्य न्यायाधीशों को नियुक्त करता है। 

योग्यताएं 

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने के लिए निम्न योग्यताएं होनी आवश्यक है-
  • वह भारत का नागरिक हो। 
  • उच्च न्यायालय में लगातार 5 वर्ष तक न्यायधीश का कार्य कर चुका हो अथवा उच्च न्यायालय में लगातार 10 वर्ष तक वकालत कर चुका हो या  
  • राष्ट्रपति की राय में वह प्रसिद्ध कानूनविज्ञ हो।
कार्यकाल सर्वोच्च न्यायालय का न्यायधीश 65 वर्ष की उम्र तक पद पर कार्य कर सकता है।  कोई भी न्यायधीश 65 वर्ष की उम्र के पहले भी हट सकता है-

  •  यदि वह स्वयं अपनी इच्छा से त्यागपत्र दे दें।  
  • यदि वह नियम विरूद्ध आचरण करे तो महाभियोग द्वारा । 
वेतन एवं भत्ते- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को भारत की संचित निधि से वेतन एवं भत्ते प्राप्त होते हैं।  क्षेत्राधिकार- सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार निम्न है- 

प्रारंभिक क्षेत्राधिकार- 

  • नागरिकों के मूल अधिकार संबंधी विवाद। 
  •  केंद्र एवं राज्य सरकार तथा राज्य सरकारों के मध्य आपसी विवाद इत्यादि।  

अपीलीय क्षेत्राधिकार- 

उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील सर्वोच्च न्यायालय में की जाती है।  इसमें विभिन्न प्रकार के मामले हो सकते हैं।  
  • संवैधानिक मामले- ऐसा विवाद जिसमें संविधान की व्याख्या संबंधी कोई प्रश्न विचारणीय हो। 
  • दीवानी मामले जमीन जायदाद संविदा इत्यादि से संबंधित मामले। 
  • फौजदारी मामले आजीवन कारावास एवं मृत्युदंड से संबंधित मामले। 

संविधान एवं मौलिक अधिकारों का रक्षक

सरकार द्वारा बनाया गया कोई भी ऐसा कानून जो संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत हो तो सर्वोच्च न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकता है।  इसे न्यायिक पुनरावलोकन कहते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होने पर रक्षा करता है। 
सर्वोच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय भी है।  इसके सभी निर्णय प्रकाशित किए जाते हैं।  इन निर्णयों का प्रयोग आगे आने वाले मुकदमों में कानून की तरह किया जाता है।  

उच्च न्यायालय 

न्यायपालिका के अंतर्गत उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय होते हैं।  राज्य में सबसे बड़ा न्यायालय उच्च न्यायालय होता है।  

न्यायाधीशों की नियुक्ति 

उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीश होते हैं।  इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।  इस कार्य में राष्ट्रपति उस राज्य के राज्यपाल तथा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करता है।  
कार्यकाल-     उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कार्य कर सकते हैं।  
योग्यताएं-     
  • वह भारत का नागरिक हो। 
  • वह भारत के किसी राज्य में कम से कम 10 वर्ष तक किसी न्यायिक पद पर रहा हो। अथवा वह उच्च न्यायालय में लगातार 10 वर्ष या अधिक समय तक अधिवक्ता या वकील रहा हो।  
वेतन एवं भत्ते-   उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को राज्य की संचित निधि से वेतन भत्ते एवं अन्य सुविधाएं प्राप्त होती हैं। 
क्षेत्राधिकार-       राज्य के उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार निम्न हैं- 
  • प्रारंभिक क्षेत्राधिकार-   कुछ ऐसे मामले हैं जो सीधे उच्च न्यायालय में प्रारंभ किए जा सकते हैं जैसे मौलिक अधिकार संबंधी याचिकाएं।
  • अपीलीय क्षेत्राधिकार-    उच्च न्यायालय में राज्य के अधीनस्थ जिला एवं सत्र न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकती है।
  • पर्यवेक्षण क्षेत्राधिकार-    उच्च न्यायालय को राज्य के समस्त न्यायालयों के निरीक्षण करने, सूचना प्राप्त करने, उनकी कार्यप्रणाली एवं कार्यवाही के संचालन संबंधी सामान्य नियम बनाने का अधिकार है।यह अधीनस्थ न्यायालयों के कर्मचारियों की नियुक्ति भी करता है।अधीनस्थ न्यायालयों के प्रकरणों की कानूनी व्याख्या करने के लिए उन्हें अपने पास मांगने का क्षेत्राधिकार भी है। 
त्वरित न्याय व्यवस्था- वर्षों से लंबित मामलों के शीघ्र निस्तारण हेतु हमारे राज्य में त्वरित न्यायालय की व्यवस्था की गई है। इसके अंतर्गत नागरिकों को सस्ता, सुलभ एवं त्वरित न्याय के लिए निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं।  इन्हीं प्रयासों के तहत न्याय व्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं जो निम्न है- 

शीघ्र सुलभ और सस्ता न्याय प्राप्त करने के प्रयास-

  • विधिक साक्षरता- 
अपने मौलिक अधिकारों के उपयोग एवं रक्षा के लिए नागरिकों को कानूनों की सामान्य जानकारी होना आवश्यक है।  विधिक साक्षरता के अंतर्गत दूरदराज के क्षेत्रों में निरक्षर, कमजोर वर्ग एवं महिलाओं को उनके हितों के लिए बनाए गए कानूनों की जानकारी दी जाती है। साक्षरता अभियान की तरह यह भी जन जागरूकता का अभियान है। दूरदराज के गांव में शिविर लगाकर आम जनता को उनके विधिक अधिकार एवं कर्तव्य का ज्ञान कराया जाता है। इन शिविरों में न्यायिक अधिकारी, शिक्षा अधिकारी, जनप्रतिनिधि आदि भाग लेते हैं।  विधिक साक्षरता से समाज में भाईचारा बढा है तथा लोगों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास हुआ है।  कानूनों की जानकारी होने से अपराधों में कमी आई है।
  • विधिक सहायता सेवा- 
संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में सभी को त्वरित सुलभ एवं सस्ता न्याय प्रदान कराने की बात कही गई है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राज्य सरकारों ने निशुल्क विधिक सहायता सेवा प्रारंभ की है।  यथा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिलाओं, बालकों, बंदी, आपदा ग्रस्त व्यक्ति एवं ₹25000 तक की वार्षिक आमदनी वाले व्यक्ति को विधिक सहायता सेवा उपलब्ध होती है। इससे आर्थिक सामाजिक आधार पर कोई व्यक्ति न्याय प्राप्त करने से वंचित नहीं रहता। इसके लिए ऐसे व्यक्ति को नियमानुसार निशुल्क रूप से अधिवक्ताओं की सेवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।  इस हेतु अपने क्षेत्र में कार्यरत न्यायिक मजिस्ट्रेट से विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
  • लोक अदालत- 
प्राचीन काल में गांव के लोग अपने आपसी विवाद चौपाल पर ही निपटा लिया करते थे।  लोक अदालतें इसी व्यवस्था का परमार्जित रूप हैं। लोक अदालतें पक्षकारों के बीच आपसी द्वेष को समाप्त करने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही है जिससे पक्षकारों के बीच सदभावना बनी रहती है। लोक अदालत प्रत्येक माह के अंतिम शनिवार को लगाई जाती है जिनमें विवादों का आपसी समझौते द्वारा निस्तारण किया जाता है। हर जिला स्तर पर स्थाई लोक अदालत होती है, जो संबंधित न्यायालय द्वारा भेजे गए मामलों पर फैसला करती है। इसके अतिरिक्त लोक अदालत में कानूनी सेवा क्लीनिक द्वारा भी मामले भेजे जाते हैं। 
लोक अदालत का फैसला दोनों पक्षकारों को स्वीकार होता है तथा इस फैसले के विरुद्ध वे किसी भी न्यायालय में अपील नहीं कर सकते। आपसी सहमति से किए गए फैसलों के लिए यह अंतिम न्यायालय है। यदि कोई मामला लोक अदालत में निर्मित नहीं होता है तो पक्षकार सक्षम न्यायालय में अपना मामला ले जाने के लिए स्वतंत्र हैं। 
  • कानूनी सेवा क्लीनिक- 
लंबित मामलों को कम करने, सामान्य विवाद को शीघ्र निपटाने एवं आपसी समझाइश द्वारा प्रकरणों को निपटाने की दृष्टि से प्रत्येक खंड स्तर पर कानूनी सेवा क्लीनिक की स्थापना की गई है। कोई भी पीड़ित पक्ष कार कानूनी सेवा क्लीनिक में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता है। जिला विधिक सेवा के सचिव प्रार्थना पत्र की जांच कर दूसरे पक्ष कार को नोटिस देकर बुलाते हैं। दोनों पक्षों की बात सुनकर अदालत में उपस्थित होने का निर्देश देते हैं ताकि नियत दिन को विवाद का आपसी सद्भाव व समझाइस  में निपटारा हो सके है। 
  • त्वरित न्यायालय फास्ट ट्रैक कोर्ट-
न्यायालयों में बढ़ते मुकदमों के त्वरित निपटारे हेतु एक नए प्रकार की स्थापना की गई है जिन्हें फास्ट ट्रैक कोर्ट कहा जाता है।  इनमें आजीवन कारावास या मृत्युदंड तथा 10 वर्ष से अधिक के कारावास वाले अपराधों का त्वरित गति से दिन प्रीतिदिन सुनवाई कर निस्तारण किया जाता है। ये  न्यायालय शीघ्र न्याय कर जनता में न्यायालयों के प्रति विश्वास पैदा करने में सफल हो रहे हैं।

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