विकास के स्तर के आधार पर अर्थव्यवस्था
विकास के स्तर के आधार पर अर्थव्यवस्था को दो भागों में बांट सकते हैं-
1. विकसित अर्थव्यवस्था 2. विकासशील अर्थव्यवस्था
विकसित अर्थव्यवस्था
विकसित अर्थव्यवस्था से तात्पर्य ऐसी अर्थव्यवस्था से है जो अपने साधनों का कुशलतम उपयोग करती है, जिनकी प्रति व्यक्ति आय तथा रहन-सहन का स्तर काफी ऊंचा होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, जापान, फ्रांस आदि देशों की अर्थव्यवस्थाएँ इसी श्रेणी में शामिल की जाती है। इन अर्थव्यवस्थाओं की मुख्य विशेषताओं में ऊंची प्रति व्यक्ति आय, पूंजी निर्माण की ऊंची दर, शहरी जनसंख्या का अधिक अनुपात, विकसित आधार-भूत संरचना, उच्च तकनीक का प्रयोग, व्यवसायिक ढांचे में उद्योग व सेवा की प्रधानता आदि प्रमुख है।विकासशील अर्थव्यवस्था
विकासशील अर्थव्यवस्था को कुछ अर्थशास्त्री अल्प विकसित, पिछड़ी तथा निर्धन अर्थव्यवस्थाएँ भी कहते हैं, किंतु इन नामों में विकासशील शब्द ही अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। विकासशील अर्थव्यवस्था से तात्पर्य ऐसी अर्थव्यवस्था से है जिसने अपने विकास की प्रक्रिया तो प्रारंभ कर दी है परंतु अभी भी विश्व के औसत रहन-सहन स्तर से पिछड़े हुए हैं। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, ब्राज़ील, मिश्र आदि देश इसी श्रेणी में आते हैं।विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की मुख्य विशेषताएं हैं- निम्न प्रति व्यक्ति आय, सामान्य गरीबी, आर्थिक असमानताएं, पूंजी की कमी, कृषि तथा ग्रामीण क्षेत्र की प्रधानता एवं उनका पिछड़ापन, जनसंख्या की तीव्र वृद्धि दर, बेरोजगारी, तकनीक का निम्न स्तर विदेशी निर्भरता, बैंकिंग, बीमा व संचार साधनों की कमी आदि।
अर्थव्यवस्था की समस्याएं
आज मनुष्य की आवश्यकताएं असीमित हैं। यदि उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साधन असीमित होते तो कोई आर्थिक समस्या ही उत्पन्न नहीं होती। प्रत्येक अर्थव्यवस्था चाहे वह पूंजीवादी हो या समाजवादी, विकसित हो या विकासशील सभी अर्थव्यवस्थाओं में उनकी आवश्यकताओं की तुलना में साधन सीमित होते हैं। इसलिए आर्थिक समस्या उत्पन्न होती है, इसे ही आर्थिक समस्या कहते हैं।अर्थव्यवस्था की प्रमुख समस्याएं-
क्या उत्पादन किया जाए-
प्रत्येक अर्थव्यवस्था में साधन सीमित होते है तथा उनकी तुलना में आवश्यकताएं अधिक होती है। अतः यह मुख्य समस्या उत्पन्न होती है कि वह अपने सीमित साधनों से किन-किन वस्तुओं का तथा कितनी- कितनी मात्रा में उत्पादन करें। ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था को अपने साधनों की उपलब्धता तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय करना होगा कि वह उपभोग योग्य वस्तुओं का उत्पादन करें या उत्पादक वस्तुओं का अनिवार्य वस्तुओं का उत्पादन करें या विलासिता वस्तुओं का। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है जिन वस्तुओं की उपभोक्ता अधिक कीमत देने को तैयार है तथा उन वस्तुओं का उत्पादन कम होगा जिनकी उपभोक्ता कीमत कम देना चाहता है। इस प्रकार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कीमत प्रणाली उत्पादन का निर्धारण करती है। समाजवादी अर्थव्यवस्था में केंद्रीय नियोजन अथवा सरकार अधिकतम सामाजिक लाभ को ध्यान में रखते हुए यह निर्धारित करती है कि किन वस्तुओं का कितनी मात्रा में उत्पादन करना है।उत्पादन कैसे किया जाए-
प्रत्येक अर्थव्यवस्था के सामने दूसरी महत्वपूर्ण समस्या यही आती है कि विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन कैसे किया जाए अर्थात उत्पादन करने के लिए कौन सी विधि को अपनाएं ताकि कम से कम लागत पर अधिकतम उत्पादन हो सके। यह समस्या इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन की कई तकनीक होती हैं। जैसे किसी उद्योग में विनिर्मित वस्तुओं का उत्पादन श्रम गहन या पूंजी गहन का तकनीक में से किसी एक तकनीक से किया जा सकता है। जब वस्तुओं का उत्पादन अधिक श्रम व सीमित पूंजी की सहायता से किया जाता है तो इसे हम श्रम गहन तकनीक कहते हैं। दूसरी ओर जब वस्तुओं का उत्पादन कम श्रमिकों तथा अधिक पूंजीगत मशीनों की सहायता से किया जाता है तो उसे पूंजी गहन तकनीक कहा जाता है। इसी प्रकार जैसे खेत में फसल कटाई का कार्य हाथ से भी किया जा सकता है और मशीनों से भी।वस्तुओं का उत्पादन किन के लिए किया जाए-
प्रत्येक अर्थव्यवस्था के सामने तीसरी आधारभूत समस्या यह रहती है कि वह अपने कुल उत्पादन एवं राष्ट्रीय आय का वितरण कैसे करें? एक अर्थव्यवस्था का कुल उत्पादन उत्पत्ति के विभिन्न साधनों के संयुक्त प्रयासों का परिणाम होता है। अत: उत्पादन का वितरण उत्पादन के इन विभिन्न साधनों के मध्य किया जाना चाहिए। यह वितरण की समस्या है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं का वितरण कीमत प्रणाली के माध्यम से होता है जबकि समाजवादी अर्थव्यवस्था में वितरण का कार्य नियोजित ढंग से अधिकतम सामाजिक कल्याण के लिए सरकारी आदेशों के अनुसार किया जाता है।साधनों के पूर्ण उपयोग की समस्या-
यह एक महत्वपूर्ण समस्या होती है कि एक तरफ प्रत्येक अर्थव्यवस्था के साधन सीमित होते हैं और दूसरी ओर इन सीमित साधनों का भी पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता अर्थात कुछ साधन बेकार पड़े रहते हैं। जैसे भारत में पूंजी की कमी से श्रम शक्ति का एक बड़ा भाग बेकार रहता है। अमेरिका, जापान आदि देशों में मांग की कमी से उद्योग बंद हो जाते हैं और साधन बेकार हो जाते हैं। अतः प्रत्येक अर्थव्यवस्था के सामने यह समस्या रहती है कि किस देश में उपलब्ध साधनों का पूरा-पूरा उपयोग कैसे किया जाए। दूसरे शब्दों में यह समस्या पूर्ण रोजगार की समस्या है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में यह कार्य कीमत यंत्र के माध्यम से होता है जबकि समाजवादी अर्थव्यवस्था में रोजगार उपलब्ध करवाने का दायित्व नियोजन के माध्यम से सरकार का होता है।आर्थिक रखरखाव विकास में लचीलापन-
वर्तमान समय में प्रत्येक अर्थव्यवस्था न केवल अपनी वर्तमान उत्पादन क्षमता को बनाए रखना चाहती है वरन आर्थिक विकास की गति को भी तेज करना चाहती है। अर्थव्यवस्था में रखरखाव से हमारा तात्पर्य मशीनों की घिसावट या टूट फूट के कारण उत्पादन में होने वाली गिरावट को रोकना है ताकि वर्तमान उत्पादन क्षमता यथास्थिर बनी रहे।भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएं
नियोजित मिश्रित अर्थव्यवस्था-
देश में एक साथ निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र कार्य कर रहे हैं। यहां आर्थिक विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनाई जाती हैं। निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ संयुक्त तथा सहकारी क्षेत्र का भी समावेश किया गया है। जुलाई 1991 से देश में नए आर्थिक सुधारों को अपनाया गया है, जिसमें उदारीकरण के मार्ग पर जोर दिया जा रहा है। कृषि, उद्योग, विदेशी व्यापार तथा वित्तीय क्षेत्र में उदार नीतियांअपनाई जाने लगी है। निजीकरण, उदारीकरण तथा वैश्वीकरण पर बल दिया जाने लगा है।कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था-
भारतीय अर्थव्यवस्था एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है जिसमें कृषि रोजगार का आधार राष्ट्रीय आय का प्रमुख स्रोत तथा जीवन यापन का प्रमुख साधन है। इसके साथ ही उद्योगों के कच्चा माल का स्रोत तथा उनके द्वारा निर्मित माल का मुख्य खरीददार भी है। राष्ट्रीय आय में 35% से 40% भाग कृषि से प्राप्त होता है। देश की 50% जनसंख्या के रोजगार तथा जीवन यापन का आधार कृषि ही है। देश के आंतरिक एवं विदेशी व्यापार में भी कृषि पदार्थों की ही प्रधानता है। खदानों में देश आत्मनिर्भरता के स्तर पर पहुंच गया है। भारतीय कृषि जीवन निर्वाह स्तर से हटकर व्यवसाय कृषि में परिवर्तित हो रही है। हरित क्रांति के बाद अधिक उपज देने वाली किस्मों का प्रयोग, सिंचाई सुविधा, यंत्रीकरण, कीटनाशक दवाइयों के उपयोग तथा रासायनिक खादों के बढ़ते उपभोग से कृषि परंपरागत रूप से हटकर आधुनिक रूप में परिवर्तित हो रही है।जनाधिक्य की स्थिति-
अन्य विकासशील देशों की भांति भारत में भी जनाधिक्य स्थिति पाई जाती है। जहां 1951 में देश की 36 करोड़ जनसंख्या थी वह 2001 में बढ़कर 102 करोड़ से अधिक हो गई है। जनसंख्या की समस्या देश के विकास में बाधक है। बेरोजगारी व गरीबी की समस्या भी बढ़ती जाती है। साधनों का तेज गति से उपयोग होने पर भी देश की जनसंख्या का रहन-सहन का स्तर उठाना एक कठिन कार्य हो रहा है।संघीय अर्थव्यवस्था-
भारतीय संविधान में संघीय ढांचे को स्वीकार किया गया है। इस कारण देश का आर्थिक ढांचा भी संघीय ढांचा ही है। इसका तात्पर्य यह है कि सरकारी आर्थिक संस्थाएं तथा गतिविधियां भी केंद्रीय व राज्य स्तर पर कार्य करती है। देश की मुख्य आर्थिक गतिविधियों के नियमन एवं निर्देशन की जिम्मेदारी मुख्यत: केंद्र को दी गई है। परंतु कई महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियां राज्य के अधिकार में आती हैं। जैसे कि रेलवे, पोस्ट, टेलीग्राम, परमाणु ऊर्जा संयंत्र आदि केंद्र के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, बिजली, सड़क परिवहन आदि राज्यों के अधिकार में आते हैं। किंतु नियंत्रण शक्ति केंद्र के अधीन ही होती है। जैसे सिंचाई सुविधाओं का प्रावधान राज्य का विषय है परंतु बड़े बांधों और उद्देश्य बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं के निर्माण का कार्य केंद्र सरकार करती है। राज्य अकाल बाढ़ तथा अन्य सहायता के लिए केंद्र से ही मदद लेता है। इस प्रकार हमारे संघीय ढांचे का झुकाव केंद्र की ओर है।
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