भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर भारत में राष्ट्रीय जनमत की स्थिति निराशाजनक थी। प्रथम विश्वयुद्ध में सेवाएं अर्पित करने के बदले में भारतीय लोग ब्रिटिश सरकार से उत्तरदाई शासन प्राप्त करने की आशा कर रहे थे। किंतु उसके स्थान पर देश को भारत सरकार अधिनियम 1919 मिला जिसने फूट डालो और राज करो की नीति को ही बढ़ावा दिया। इस अधिनियम के अंतर्गत प्रथम सांप्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों में सिखों, Anglo-Indians, इंडियन क्रिश्चियंस तथा अन्य समुदाय भी शामिल कर लिए गए। अन्य परिवर्तनों के अतिरिक्त 1919 के अधिनियम के अंतर्गत प्रांतों में द्वैध शासन स्थापित कर दिया। इस प्रणाली के अंतर्गत महत्वपूर्ण विभागों जैसे वित्त विभाग आदि पर ब्रिटिश शासन का नियंत्रण बना रहा। साथ ही प्रांतीय गवर्नरों का विदाई और वित्तीय मामलों में निषेध आधिकार पूर्ववत रहा। इसके विपरीत भारतीयों को ऐसे विभाग दिये पर गए जो न तो राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थे और ने उनमें अधिक बजट होता था।रोलेट एक्ट व सत्याग्रह
देश में असंतोष की लहर रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने दबाव डालने के लिये 21 मार्च 1919 को रौलट एक्ट लागू किया। इसके बाद महात्मा गांधी ने राजनीतिक संघर्ष में प्रभावशाली ढंग से भाग लेना शुरू कर दिया। उन्होंने इस एक्ट को भारतीयों के लिए खुली चुनौती समझा। यह कानून भारतीयों के जबरदस्त विरोध के बावजूद पारित कर दिया गया। विरोध का आधार यह था कि इस एक्ट के अंतर्गत किसी भी भारतीय को दो वर्ष तक नजरबंद रखने उनके नागरिक अधिकारों को नियंत्रित करने तथा स्वशासन के संघर्ष को दबाने के लिए पुलिस को सशक्त बनाना था।रौलट एक्टर से कानून में उत्पन्न राजनीतिक स्थिति की सबसे अधिक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि विभिन्न विचारधाराओं वाले राजनीतिक नेताओं ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त किया। वे उनसे निर्देश व कार्यवाही की प्रतीक्षा करने लगे। महात्मा गांधी ने रौलट एक्ट के विरोध में विशाल सत्याग्रह प्रारंभ कर दिया यह सत्याग्रह रोलेट सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है। 30 मार्च 1919 को अनेक नगरों में हड़ताल रही 6 अप्रैल 1919 को महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीयों ने पहली बार देशभर में हड़ताल आयोजित की। ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में 6 अप्रैल 1919 की हड़ताल का सफल हो जाना और चिंता का विषय था । किंतु उनके लिए उससे भी अधिक चिंताजनक और व्याकुल कर देने वाली बात थी सांप्रदायिक मतभेदों वाले प्रांतों में विलक्षण एकता का होना। रौलट एक्ट के विरोध में 30 मार्च और 6 अप्रैल 1919 की हड़ताल में पंजाब के हिंदुओं, सिखों तथा मुसलमानों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। अमृतसर में मुसलमानों द्वारा 9 अप्रैल 1919 को रामनवमी के जुलूस में भाग लेना दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण था।
जलियांवाला बाग हत्याकांड
उग्र भारतीय जनमत से भयभीत होकर ब्रिटिश सत्ता धारियों ने 10 अप्रैल 1919 को अमृतसर के अग्रिम पंक्ति के नेता डॉक्टर सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को पंजाब से निष्कासित कर दिया। सरकार ने महात्मा गांधी का दिल्ली और पंजाब में प्रवेश निषेध कर दिया। 10 अप्रैल 1919 को अमृतसर में ब्रिटिश सेना ने शांतिपूर्ण सत्याग्रह पर गोलियां चलाई। जिससे अमृतसर की जनता में रोष फैल गया और उसने टाउन हॉल और रेलवे स्टेशनों सहित सरकार के प्रतीकों पर आक्रमण कर दिया। दो दिन बाद बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को जनरल डायर और उसकी फौजी टुकड़ी ने निहत्थे ग्रामीणों की एक सभा जलियांवाला बाग में गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए हो रही थी पर आक्रमण कर दिया। उसने उनके भागने के रास्ते बंद कर दिए और गोली चलाने के आदेश दे दिए। इस बर्बरता पूर्ण कार्यवाही के फलस्वरूप लगभग 372 भारतीयों की जान गई और 1200 शांति प्रिय नागरिक गंभीर रूप से घायल हो गए। अंग्रेजों की गोलियों से बचने के लिए कई लोगों ने कुएं में कूदकर अपने प्राणों की आहुति दी।असहयोग आंदोलन
जलियांवाला बाग हत्याकांड से पूरा देश शोक में डूब गया। रविंद्र नाथ टैगोर ने सर तथा महात्मा गांधी ने केसर ए हिंद की उपाधि लौटा दी। इसके साथ ही महात्मा गांधी ने स्वराज्य की मांग तथा तुर्की के खलीफा विरोधी ब्रिटिश नीति के प्रति चिंता की भावना का एकाकार कर दिया। उन्होंने अपने आंदोलन में खिलाफत (मुस्लिमों के धार्मिक गुरु) की रक्षा के साथ गौ रक्षा का विषय भी शामिल कर लिया। इसे खिलाफत आंदोलन भी कहा जाता है। महात्मा गांधी का खिलाफत विषय पर समर्थन दिया जाना बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट, श्रीनिवास शास्त्री, और देशबंधु सीआर दास जैसे नेताओं को स्वीकार नहीं था। महात्मा गांधी असहयोग आंदोलन में इन दोनों विषयों को सम्मिलित कराने के लिए कांग्रेसी नेताओं का बहुमत अपने पक्ष में जुटाने में सफल हो गए। अनुभवी व प्रसिद्ध नेता लाजपत राय की अध्यक्षता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन 20 सितंबर 1920 को कोलकाता में आयोजित हुआ। इसी वर्ष दिसंबर में नागपुर में कांग्रेस का कार्यक्रम का अनुमोदन किया। इसी वर्ष दिसंबर में नागपुर में कांग्रेस का ऐतिहासिक अधिवेशन हुआ। दोनों ही अधिवेशन में कांग्रेस ने महात्मा गांधी के कार्यक्रम का अनुमोदन किया। नागरिक अधिवेशन में मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने को सामान्य लोगों की भावना से अलग-थलग पाया। अतः उन्होंने कांग्रेसी छोड़ दी। सच तो यह है कि जिन्ना भारतीय राजनीतिक में गांधीजी के पदार्पण से अपना आधार खोते जा रहे थे। महात्मा गांधी द्वारा स्वदेशी के पहनावे, भाषा तथा जीवन शैली अपनाई जाने पर बल दिया जाना उन्हें प्रारंभ से ही ना पसंद था।महात्मा गांधी के अद्वितीय नेतृत्व तथा पथ प्रदर्शन से कांग्रेस ने जन संस्था का रूप धारण कर लिया था। शहरी तथा ग्रामीणों के बीच जो खाई थी वह अब पट चुकी थी। महिलाओं तथा दलित वर्ग की कांग्रेस में भागीदारी बढ़ गई और इस प्रकार इसे जनांदोलन का रूप दिया। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद से अब तक कांग्रेस ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अगुवाई कर रही थी किंतु अब महात्मा गांधी ने स्वयं पहल करना प्रारंभ कर दिया। महात्मा गांधी की कार्यप्रणाली का सामना करना ब्रिटिश सरकार के लिए कठिन हो गया।
असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम में तीन बहिष्कार सम्मिलित थे कचहरी, सरकारी शिक्षण संस्थाओं और निर्वाचन सहित विधाई प्रक्रिया का बहिष्कार, शराब की दुकानों पर धरना देना, सरकारी उपाधियों को लौटाना तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार भी इसमें शामिल था। अनेक वकीलों ने वकालत छोड़ दी। मद्रास प्रेसिडेंसी सहित देश के विभिन्न भागों में अनेक राष्ट्रीय विद्यालय स्थापित किए गए उनमें काशी विद्यापीठ वाराणसी और गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद मुख्य थे।
असहयोग आंदोलन ने समूचे राष्ट्र को उत्तेजित कर दिया और इस अखिल भारतीय स्तर की उमड़ती लहर को देखकर ब्रिटिश सरकार स्तब्ध रह गई। इस प्रकार उत्पन्न देशभक्ति के जोश ने सुभाष चंद्र बोस को इंडियन सिविल सर्विस ठुकरा कर स्वराज्य के लिए संघर्ष में कूद पड़ने को प्रेरित किया। पहली बार कई हजार नवयुवक तथा नव युवतियां स्वेच्छा से जेल गए और हिंदू मुस्लिम एकता का अनोखा दृश्य उपस्थित हुआ।
ब्रिटिश सरकार द्वारा सेवरस की संधि में टर्की के पक्ष में संशोधन करने से भारतीय मुसलमान काफी नरम पड़ गए। इससे मुसलमान असहयोग आंदोलन से अलग हो गये।
धार्मिक जोश से उत्साहित मुसलमानों की भागीदारी से आंदोलन को एक नई शक्ति तथा आक्रामकता प्राप्त हुई। पर्दे के पीछे ब्रिटिश कूटनीति भी काम कर रही थी जिसका उद्देश्य सांप्रदायिक मतभेदों को बढ़ाना और मुसलमानों को असहयोग आंदोलन से अलग करना था। इस चरण में कोहाट से कोलकाता तक संपूर्ण भारत में हिंदू मुस्लिम दंगे भड़क उठे। इस प्रवृत्ति ने लाला लाजपत राय को हिंदू-मुस्लिम एकता का अध्ययन करने को प्रेरित किया उन्होंने द ट्रिब्यून समाचार पत्र में एक लेख माला प्रकाशित कराई जिसमें उन्होंने यह भविष्यवाणी की थी यदि इस प्रकार संप्रदायिकता पर आधारित निर्वाचन मंडल बनाए जाते रहे तो भारत का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन सुनिश्चित है।
जब असहयोग आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था उसी समय चोरा-चोरी में 5 फरवरी 1922 को घटित हिंसा के कारण 12 फरवरी 1922 को गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इस घटना में उग्र किसानों ने 22 सिपाहियों को एक थाने में जलाकर मार डाला था। इस आंदोलन के अचानक वापस लिए जाने से लोगों को गहरा धक्का लगा। ब्रिटिश अधिकारी इसी अवसर की प्रतीक्षा में थे, उन्होंने महात्मा गांधी को 10 मार्च 1922 को अहमदाबाद में गिरफ्तार कर लिया। असहयोग आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि आंदोलनकारी ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा दी जा रही यात्राओं और सजाओ को भोगने के लिए सहर्ष तैयार रहते थे।
काकोरी कांड
जब महात्मा गांधी अपने ग्रामीण रचनात्मक कार्यक्रम में व्यस्त थे तब बंगाल और संयुक्त प्रांत में क्रांतिकारी गतिविधियां पुनर्जीवित हो उठी। महान देशभक्त चंद्रशेखर आजाद की प्रेरणा से अक्टूबर 1924 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना कानपुर में हुई। इस संस्था का उद्देश्य सशस्त्र संघर्ष द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करना था। इसकी शाखाएं दिल्ली, पंजाब, बिहार, मद्रास, संयुक्त प्रांत और अन्य कई स्थान स्थानों में थी। प्रमुख क्रांतिकारियों में चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, सूर्यसेन, भूपेंद्रनाथ दत्त, हेमचंद्र कानूनगो, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, भगवती चरण वोहरा, बटुकेश्वर दत्त और रोशन लाल के नाम उल्लेखनीय हैं।अपने क्रांतिकारी कार्यों के लिए हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य सरकारी धनराशि को भी लूट लेते थे। 9 अगस्त 1925 को यह क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन पर एक रेलगाड़ी को पटरी पर से उतार कर उसमें जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया। इस घटना को काकोरी कांड कहते हैं। इस कांड के कारण ही राम प्रसाद बिस्मिल, रोशनलाल, राजेंद्र लाहिड़ी और अशफाक उल्ला खान को फांसी की सजा मिली। इन सभी ने राष्ट्रीय लक्ष्य की पूर्ति के लिए खुशी-खुशी मृत्यु का आलिंगन किया. रोशनलाल वंदे मातरम कहते हुए फांसी के तख्ते पर झूल गए, राम प्रसाद बिस्मिल के अंतिम शब्द थे मैं ब्रिटिश साम्राज्य के पतन की कामना करता हूं।
साइमन कमीशन
नवंबर 1927 में सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में इंडियन स्टेटयुटरी कमीशन गठित हुआ, जिसे साइमन कमीशन भी कहा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य भारत सरकार के अधिनियम 1919 के क्रियान्वयन का अध्ययन करना तथा भारतीय प्रशासन में सुधार लाने के लिए सुझाव देना था। इस कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे इस कमीशन की सदस्यता से भारतीयों को वंचित रखने के कारण इस बात की पुष्टि हो गई कि ब्रिटिश सरकार की संवैधानिक सुधार लाने में कोई रुचि नहीं थी। भारतीयों ने मांग की कि कमीशन के सदस्य भारतीय भी होने चाहिए क्योंकि वही भारतीय लोगों की समस्याओं को भलीभांति समझ सकते हैं। किंतु ब्रिटिश सरकार ने इस मांग को अस्वीकृत कर दिया।भारत का प्रत्युत्तर
मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने यह घोषणा कर दी कि भारतीय लोग साइमन कमीशन के साथ सहयोग नहीं करेंगे। भारतीयों ने कमीशन का बहिष्कार किया तथा संपूर्ण भारत में इसके विरोध में प्रदर्शन किए गए। ब्रिटिश सरकार ने साइमन विरोधी आंदोलन को कुचलने के लिए दमन की नीति अपनाई। हजारों निहत्थे और निर्दोष निर्दोष लोगों को पुलिस द्वारा पीटा गया। पंडित नेहरू, लाला लाजपत राय तथा गोविंद बल्लभ पंत जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को भी निर्ममता से पीटा गया। फलस्वरूप लालाजी की लाहौर में 17 नवंबर 1928 को मृत्यु हो गई। गांधी जी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि जब तक भारतीय आकाश में सूर्य चमकता रहेगा लाला जी जैसा व्यक्तित्व कभी नहीं मर सकता।ब्रिटिश सरकार के दमन और लाला जी की मृत्यु ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की। सरदार भगत सिंह और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों ने लालाजी की मृत्यु का बदला लेने की ठान ली और अंग्रेज अफसर जॉन सांडर्स की हत्या कर दी। क्योंकि सांडर्स बीमार लालाजी पर लाठी से प्रहार करने के लिए उत्तरदाई था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली के सेंट्रल असेंबली हॉल में दो बम फेंक कर पूरे देश में देशभक्त की लहर फैला दी। सबसे महत्व की बात यह थी कि बम फेंकने के बाद उन्होंने बचकर भागने का प्रयास नहीं किया और स्वयं को गिरफ्तार हो जाने दिया। वास्तव में वह ब्रिटिश सरकार को स्मरण कराना चाहते थे कि भारतीय युवक चैन से नहीं बैठने देंगे। ब्रिटिश सरकार ने इन क्रांतिकारियों के विरुद्ध मुकदमा चलाया जो लाहौर षड्यंत्र कांड के नाम से प्रसिद्ध है। इस मुकदमे का अंत भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को मृत्युदंड सुनाए जाने के साथ हुआ। लाहौर षड्यंत्र कांड जतिन दास की भूख हड़ताल के लिए भी प्रसिद्ध है जो 64 दिन तक चली जिससे उनकी मृत्यु हो गई। पंडित नेहरू ने जतिन दास की मृत्यु के अवसर पर कहा था कि भारत के शहीदों की सूची में एक नाम और जुड़ गया।
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